क्या खेल खेल रहे हो
आपके इस भक्त का मन शंकाओं और अनुत्तरित प्रश्नों से अत्यंत व्याकुल है. अपने अशांत मन में उमड़ती जिज्ञासाओं को मैं आपके समक्ष पूर्ण विनम्रता से प्रस्तुत करती हूं.
हे प्रभु! जब आपने इस अद्भुत सृष्टि की रचना की है, जब आप समस्त ब्रह्माण्ड के माता-पिता, बंधु-सखा और नियंता हो, आप हमारे साथ यह कौन सा खेल खेल रहे हो...कैसी लीलाएं कर रहे हो?
अखिल ब्रह्माण्ड के मंच पर ऐसी अबूझ लीलाओं को चित्रित करने की आपको आवश्यकता ही क्या थी? जिन पात्रों को आपने स्वयं रचा हैं, उनका चित्रण नकारात्मकता के प्रकाश में क्यों?
हम समस्त संततियां आपके कलात्मक सृजन हैं. जो विचार और भाव हमारे लिए कष्टप्रद, निकृष्ट और हानिकारक हैं, उनसे हमारा सामना कराकर क्या आपको खुशी मिलती है?
हे दया के सागर! आप निश्चित रूप से परपीड़क नहीं हैं जो हमारे दुख पर आनंद महसूस करे. क्या आपका ह्रदय नहीं स्पंदित होता, नहीं पिघलता, अपने प्रियजनों को कष्ट सहते देख कर? तो फिर किस उद्देश्य से आप हमसे यह निर्मम और भयानक खेल खेल रहे हो?
आपने विशाल जगत बनाया, विविध पशु और वनस्पति रचे, दिन-रात का सुनिश्चित लय कायम किया, आपके दिव्य विधान से ऋतुएं अपने निर्धारित समय पर आने से नहीं चूकतीं, आपसे सृजित अगणित जीवों में से प्रत्येक की विशिष्ट भौतिक विशेषताएं हैं.
चराचर सृष्टि के सब प्राणियों में से एक मनुष्य का हर सदस्य भले ही संत स्वभाव का न हो परंतु वे बुराइयों से रहित तो हो ही सकते थे. आपके लिए पूरी मानव जाति को सद्भावना और सदविचारों से परिपूर्ण बनाना क्या असंभव था?
सदियों से यह संसार त्रासदियों से गुज़र रहा है. क्रूर अपराध, हिंसा, आपदाएं, अकाल मृत्यु और अशांति चहुंओर व्याप्त हैं. आपकी इच्छा मात्र से अधर्म के बीज मानव जाति के मन में कभी नहीं बोये जाते और मनुष्य न ही दुष्ट, निर्दयी और लोभ, मोह, क्रोध और अहंकार के पंक में आकंठ डूबा निर्बल जीव होता. आप निश्चित रूप से कठोर दिलवाले नहीं हैं तो फिर ये खेल, ये अभिनय क्यों?
विनाश, विपत्तियों और अनकही पीड़ाओं का सामना आपकी अबोध संततियां कर रही हैं. मनुष्य के बच्चे अल्पवय में अपने माता-पिता खोकर दारुण नर्क भोग रहे हैं. शारीरिक-मानसिक संत्रास से दुनिया त्राहिमाम कर रही है. निस्संदेह, हम अपने अनेक जन्मों का कर्मफल भुगत रहे हैं।
पर मैं सविनय किंतु क्षोभ के साथ इतना जरूर कहूँगी कि संसार की कुरूपता को आपने निरंतर फलने-फूलने का आनंद दे दिया है. मेरी शाष्टांग विनती है कि इस अधर्म का किस्सा अब खत्म करो. मानव जाति के पतन को राको. हमें पाप-पुण्य के विरोधाभास और जन्म-मरण के चक्रव्यूह से बचाओ. अपने शरणागत बुद्धिहीन भक्तों को और मत सताओ. सबको राहत दो.
कमल जैसे नेत्रों वाले हे राजीव लोचन! क्या तुम्हारी आँखें हमारी पीड़ाओं से नम नहीं होतीं? आप एक पहेली हैं जिसे सुलझाना आध्यात्मिक यात्रा में निमग्न आपके इस अबोध शिशु के वश में नहीं है.
सत्व, रजस और तमस की सीमाओं में आबद्ध मुझ अधीर जीव के लिए आपकी विचार प्रक्रिया और इरादों को समझना संभव नहीं है परंतु मेरा यह विश्वास भी अटूट है कि यदि आप चाहें तो क्षण मात्र में सब सकारात्मक हो सकता है.
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